Wednesday, March 7, 2012

मेरे जूठे हाथ

खाने के मेज पर
माँ के हाथों बनायीं हुई गरमा गरम सब्ज़ी
जब मेरे हाथों से चावल के दानों के साथ मिलती
तो मानो एक अलग ही एहसास होता
लगता कि ऐसी ख़ुशी, पूरे कायनात में न मिले
नानी के हाथों बनाया हुआ आम के अचार
जो बिन बताये ही मेरे उँगलियों से लड़ता, उन्हें छेड़ता
फिर मैं उनसे जूझता, तोड़ता, मरोड़ता
और ख़त्म कर देता
उँगलियों का रंग सब्जी के रंग में कैसे तब्दील हो जाता
इसका कभी भी पता नहीं चलता
उँगलियों को अपने ज़ुबां से साफ़ करता,
चाहते हुए कि वो कभी साफ़ न हो
और चार घंटे बाद, शाम के खेल ख़त्म हो जाने पर
दोबारा वो मेज, दोबारा वो बेजोड़ ख़ुशी

खाने के मेज पर
खुद की बनाई हुई सब्जी
जब चम्मच से चावल के दानों के साथ मिलती
तो मानो एक घुटन सी होती
लगता कि ऐसी घुटन, पूरे कायनात में न मिले
नानी के हाथों बनाये गए आम के अचार की कमी खलती
मेरी उँगलियाँ उस कटे हुए आम की गुठली से जूझने को तरसती
फिर मैं खुद से लड़ता, अन्दर ही अन्दर मसोसता
और चम्मच को कहीं दूर फेक देता
उँगलियों के रंग सब्जी के रंग में कैसे तब्दील हो जाते
पता भी ना चलता
उँगलियों को अपने ज़ुबां से साफ़ भी न करता,
और उस दिन, दस घंटे बाद, मैं घर पर, माँ के साथ
दोबारा वो मेज, दोबारा वो ख़ुशी और मेरे जूठे हाथ |

3 comments:

tripti said...

Nice! :)

tripti said...

But you should work on the Rhyming scheme and it'll be perfect. :)

parul jain said...

nice poem...